प्रकृति का प्रकोप
प्रकृति की कैसी भयावह दृष्टि।
कभी अनावृष्टि, कभी अतिवृष्टि।
संजोये सपनों के, मकान ढह गए।
जान, सामान संग अरमान बह गए।
पानी की तेज रवानी से, जीते वह जो,
जीवन-मृत्यु का द्वंद्व घमासान सह गए।
कितनों को काल ने निगल लिया,
कितनों को प्राप्त न हुई अंत्येष्टि।
प्रकृति की कैसी भयावह दृष्टि।
बाढ़ के प्रकोप से हाहाकार मचा है।
मातम मना रहा वो, जो भी बचा है।
रहने का ठिकाना है ना खाने को दाना,
प्रकृति ने कैसा वीभत्स विनाश रचा है।
वर्षा का प्रचण्ड प्रकोप बरसा,
चारों ओर जलमग्न है सृष्टि।
प्रकृति की कैसी भयावह दृष्टि।
इस विकट परिस्थिति में हम उनका साथ दें।
संभालने में उनको, आओ मिलकर हाथ दें।
नियति से लड़ नहीं सकते, बदल नहीं सकते,
आपदा से उबरने में उन्हें, सहायता पर्याप्त दें।
जरूरतमंद की सहायता करके,
प्राप्त होती है आत्मसंतुष्टि।
प्रकृति की कैसी भयावह दृष्टि।
देवेश साखरे ‘देव’
Nice
Thanks
सटीक
धन्यवाद
Very nice
Thanks
वाह बहुत सुंदर रचना
आभार आपका
Good one
Thanks
Sundar rachna
धन्यवाद