कागज़ की कश्ती चलती थी
कागज़ का जहाज़ भी उड़ता था,
थे अमीर बहुत तब हम,
वो बचपन कितना, अच्छा था
सखियों संग ,उपवन में जाकर
आंख-मिचौली खेली थी,
स्वादिष्ट बहुत लगता था
वो आम जो थोड़ा कच्चा था,
हां, बचपन कितना अच्छा था
मित्र मतलबी ना होते थे,
अपना टिफिन खिलाते उसको
जो भूल गया था, लाना घर से
कक्षा का कोई भूखा बच्चा था,
वो बचपन कितना अच्छा था..
*****✍️गीता