*बचपन*
कागज़ की कश्ती चलती थी
कागज़ का जहाज़ भी उड़ता था,
थे अमीर बहुत तब हम,
वो बचपन कितना, अच्छा था
सखियों संग ,उपवन में जाकर
आंख-मिचौली खेली थी,
स्वादिष्ट बहुत लगता था
वो आम जो थोड़ा कच्चा था,
हां, बचपन कितना अच्छा था
मित्र मतलबी ना होते थे,
अपना टिफिन खिलाते उसको
जो भूल गया था, लाना घर से
कक्षा का कोई भूखा बच्चा था,
वो बचपन कितना अच्छा था..
*****✍️गीता
आपकी कविता पढ़कर जगजीत सिंह की गजल याद आ गई..
“वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी”
आपकी यह रचना समग्ररूप से भाव से भरी है..
वाह प्रज्ञा क्या बात है इतनी सुन्दर समीक्षा के लिए हृदय की गहराइयों से शुक्रिया ।
आज मैं सुबह से ही सोच रहा था बचपन पर कविता लिखने के लिए पर आपकी कविता पढ़कर मुझे बहुत खुशी हुई बहुत खूबसूरत रचना👌👌✍🙂🙂🙂☺☺☺
बहुत बहुत धन्यवाद ऋषि जी ।आप भी लिखिए अपने बचपन पर एक कविता। मेरी कविता से आपको खुशी हुई ,ये जानकर बहुत अच्छा लगा । रचना की सराहना हेतु बहुत बहुत धन्यवाद.