बरसों पहले
बरसों पहले
बंटी थी मरकज से
गणतंत्र के नाम पर
कोई आजादी
जैसी चीज
चंद गिने-चुने
रसूखदारो के बीच
ये सिलसिला
फिर यूँ ही
साल दर साल
चलता रहा
झोपडी का वो
स्वराज
डरा सहमा सा
कोठियों में
पलता रहा
आज भी
यही हो रहा है
उस डरी सहमी सी
आजादी के लिए
मुल्क
रो रहा है
nice sir ji
वाह जी वाह
Wah