मुक्तक
मां भारती का सहस्त्र वंदन, रही है आवृत ये गोधुली से
यहीं दिगम्बर ये अन्नदाता, लगे है पाथेय संबली से।
यहीं पे खेले चराए गैया, जगत खिवैया किशन कन्हैया
यहीं त्रिलोकेश सूर्यवंशी, यहीं कपिश्वर महाबली से।
मंदाकिनी का है काव्य अविरत, है धैर्य अविचल सा हिमगिरी का
प्रथमवृष्टि की सुगंध अनुपम, है स्वाद अद्भुत सा पंजिरी का।
युगों युगों से युगों युगों तक रहा सुशोभित रहेगा चिन्हित
आशीष है ये स्वयं प्रभु का, है भाग्य अतुलित सा गिलहरी का।
न काल परिधी परे निराशा, न दुःख है पारिव्याप्त इस जगत में
सही समय पर हुए प्रस्फुटित ये पुष्प पर्याप्त इस जगत में।
है धैर्य की यह सतत कसौटी सतत करेंगे इसे भी पारित
रावण भागिनी प्रणय निवेदन, कुब्जा को प्राप्त इस जगत में।
करो अहम को तुरत विसर्जित, नहीं विजित ये कभी समय से
यदि बनोगे विवेकानंदम , बनोगे केवल विधु विनय से।
अहम को त्यागें करें परिश्रम, हमारा भारत हो विश्व शीर्षम
प्रभु बचाए मनु अहम से, मनु बचाए पृथा प्रलय से।
है काव्य अपना हे मान्य कविवर, है शब्द अपने कृति स्वयं की
बने कलम ये सशक्त संबल, करे सबल अभिव्यत्कि स्वयं की
ये स्याह छींटे कभी न छोड़े, ये शब्द गरिमा कभी न तोड़े
सतत शत गरिमा भंग कर दे, शिशुपाल आहुति स्वयं की।
Anupam kavya srajan
nice
वाह
धन्यवाद
अद्भुत काव्य रचना
Good