लाल 🩸
रंग ‘लाल’ का एहसास तेरे ‘लाल’ को है क्यूँ नहीं…
बनता मज़ाक़ मेरा ही क्यूँ , क्या घर में रहती तू नहीं…
ना मंदिर मस्जिद जा सकूँ ना गुरुद्वारे इन दिनो
रब ने बनाया है मुझको भी मैं अलग तो हूँ नहीं…
ना आना जाना कर सकूँ मैं सहमी सी घर ही रहूँ…
जो बात दिल की है मेरे किस से मैं और कैसे कहूँ…
मुझे देखते है इस नज़र से कि कैसा लाल ये निशान है …
समझा दे तेरे ‘लाल’ को रंग लाल से तेरी पहचान है ..
ना डर लगे इस खून से मेरे लिए डर ‘मर्द’ है …
मतलब को आंसू पोछते , ना बेमतलबी हमदर्द है…
लगता तो है समझोगे तुम , पर मानती तो रूह नहीं…
रंग ‘लाल’ का एहसास तेरे ‘लाल’ को है क्यूँ नहीं…
बनता मज़ाक़ मेरा ही क्यूँ , क्या घर में रहती तू नहीं…
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