विस्मय
जब रात बरस कर आंखों से
बरसातों की बात छिड़ी
जब काले काले गिद्धों ने
चीड़ दिया मन की देहरी
जब लाँग चिता की अग्नि को
चित्कार से बरबस की संधि
जब अधरों पर यम आ बैठें
आत्मा अब कहाँ बंदी
पीड़ा और प्रेम को छूकर
मन के भावों ने देह त्याग दिया
जब माथे की नस तन गयी
और खुद खुदका उपचार किया
घूंघट के कंधे से लगकर
अंचल धूम्रपान किया करती
जब धोती मय की माया में
पगड़ी के चरणों में गिरती
बातों और किताबों में
सियासत जब हावी हो जाए
जब तनिक डोलाए जाने पर
सब वृक्ष पतित होकर सो जाए
आदर्शों की मोती में
विष और अस्थियां घुली हुई
जब प्रेम प्रेम सब चिल्लाते थे
वह जोगन होकर नाच रही
सबने तोड़ दिया दर्पण
दरिद्र हुआ दोषी जीवन
जब लिखते लिखते स्याही की
हत्या करने चली कलम ।
मूर्छित मेरी कविताओं को
जीवंत शब्दों का दान दिया
दर्पण के वक्ष से लिपट कर
ग्लानि का स्तनपान किया
कितना भोगा , कितना खोया
कितना कोसा , कितना रोया
निष्ठा का चंदन घिस घिस कर
पत्थर को भगवान किया
कितने पढ़ने वाले आकर
बिन समझे मुझे आगे बढ़ गए
कितनों ने नेह के मोती का
पानी कह अपमान किया
काले हाथों के थप्पड़ ने
इंद्रधनुष श्मशान किया
जो रेत उठा कर भागे थें
जेबों को रेगिस्तान किया
विस्मय के चरणों में गिरती
लज्जा की सारी माया
माया के मस्तक पर
तिलक लाल अभिमान किया
प्रलय टूट कर हृदय से
जब अश्रु की हुंकार उठी
सब सोते मानव का तब
अग्नि ने आहार किया
संताप की गोदी में जो सोती
संस्कृति की कुंठाओं को
आरोपों से गठबंधन कर
भरी सभा में मार दिया |
Responses