सब देखता है

ये शब देखता है और सब देखता है,
सावन में भी पेट में है आग , कोई कब देखता है।

दहक जेठ की,या पूस की ठिठुरन
में सश्रम है कोई,क्या रब देखता है!

कब मैं जलूँगा,या ठिठुर कर मरूँगा,
या यूँ ही सड़ते-सड़ते मैं ज़िंदा रहूंगा
मेरे इन्तेहाँ की क्या हद देखता है…।

सूखे का मंजर,बाढ़ की आफत,
“सेल्फ़ी” की आंधी में,हर शख्स देखता है।

बेरहम कुदरत,स्वार्थी फितरत
ये मैं ही तो हूँ, जो सब झेलता है,
मैं ही तो हूँ,जो सब देखता है…..|

©विनायक शर्मा

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Responses

    1. LoBeMi abuelo me contó que mi padre de pequeño se dedicaba a coger pichones de paloma, les echaba colonia, los “peinaba” y los ponía a secar cerca de la estufa. Por supuesto, ningún pobre polluelo aguantaba tanto amor y cuidados y morían. Con lo bien que los cuidaba él! Jajaja!

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