हम बंधते ही रहे।
हम बंधते ही रहे,
कभी विचारों तो कभी,
दायरों के धागों से,
सिमट कर रही जिंदगी,
उसी चार कोनों के भीतर,
जन्म से आजतक,
बस दीवारों के रंग बदले,
और लोगो के चेहरे,
कभी इस घर की मान बनी,
कभी उस घर की लाज,
फिर भी बांधते ही रहे हमें,
कभी रिश्तों के धागों से,
कभी आंसुओ की डोर से।।।
गृहस्थ जीवन से जुड़ी ग्रहणी के दुखी जीवन या फिर नारी के केवल चारदीवारी तक सीमित दुखदाई जीवन को प्रस्तुत करती बहुत ही उम्दा कविता
बहुत बहुत आभार 🙏
बहुत सुंदर रचना
धन्यवाद मैम
बहुत सुन्दर तरीके से रिश्तों की बारीकियों पर नजर डाली गई है। बहुत खूब।
धन्यवाद सर
बिल्कुल सही गृहस्ती में ग्रहणी हमेशा बंधी ही तो रहती है👏👏
बहुत-बहुत आभार प्रिया जी
वाह बहुत सुंदर
धन्यवाद सर
Sunder
Thank you
nice
धन्यवाद