कला कुमारी
निशा अंधेरी काली घाटी
है तेरे काले केश
केशो में फिर हीम के मोती
खूब सजाया वेश
ओस का चुनर ओढ़ के बैठे
लोचन घुंघट डाला
कलानरेश ने आके रची है
ये पर्वत की बाला
चली पवन अट खेली करती
चुनर ले गई खीच
लाज शर्म की मारी छुपती
वो वृक्ष के बीच
काली निशा का कलंक हाकता
आया दिनकर शहरी
दिनकर को ललकार से रोके
एक सतरंगी पहरी
किरण कुंज आगे ना बढ़ियो
दिखे तेरा मन लहरी
कला कुमारी सीस चूनर ना
ऑख ना धरीयो आखरी गहरी
Wah kya khub
थैंक्स
,सुंदर
Thankyou
Nice
🙏🙏🙏