भाई- बंधु ( पत्र )

शीर्षक भार्इ- बन्धु

हे भ्रातृ लिखे हो जो छंद मुझे,
पढ़कर मैं बहुत प्रसन्न हुआ ।
उत्तर में लिखा सवैया हूं,
जैसा मन में उत्पन्न हुआ ।।
जो कुछ त्रुटियां होगी उसमें,
तुम ध्यान नहीं उस पर देना।
सुमति मार्ग को छोड़ कभी,
कुमति पर पांव नहीं देना ।।

सवैया
मुझ हीन मलीन अधीनन पर
इक दृष्टि दया की किये रहियों।
मैं हूं एक मूर्ख अबोध जन,
मम पावन हार बने रहियों।।
जब आए कबहु विपदा मुझ पर,
धरि धीरज बाह गहे रहियो।
भ्रातृ समान नहीं कोऊ जग में ,
एक कोख की लाज किए रहियो।।
धन दौलत बार ही बार मिले ,
पर भाई सहोदर मिले नहीं दूजा।
आपत्ति काल कोऊ नहीं देखत,
नारी भी त्याग करें घर दूजा।।
भाई ही भाई की जाने व्यथा,
जग में नहीं जानत है कोऊ दूजा।
सारी सृष्टि भरी है अबोधन से,
पर हम ‘अबोध’ सा नर नहीं दूजा।।

जेपी सिंह ‘ अबोध ‘

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Responses

  1. “आपत्ति काल कोऊ नहीं देखत
    नारी भी घर करे दूजा”
    क्षमा करें मुझे इन पंक्तियों पर आपत्ति है। वैसे शेष रचना अच्छी है।भाइयों का स्नेह दर्शाती हुई है।

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