अपना गांव

बहुत ढूंढा, बहुत कोशिश की, बहुत आवाज लगाई।
लेकिन वह वापस ना आया, वह बचपन था मेरे भाई।
गांव की गलियों में खेलना, कूदना, दौड़ना, भागना,
गलती छुपाने के लिए हर बात पर, मां की कसम खाना,
सब कुछ छूट गया, अपनों तक, बीते वक्त के उस दौर में
अब हम उलझ चुके है, दो वक्त की रोटी, रहने के ठौर में,
जिस गांव को छोड़ना, ना चाहता था कोई गांव का भाई,
रोटी के खातिर अब शहर में, करना पड़ रहा उसे कमाई।।

जिस हाथ से वो गाव में ,
मिट्टी की मूर्ति बनाता था
जाकर अब वह शहर में ,
डबलरोटी बनाता है
सपनों को अपने तोड़ कर
अपने घर को छोड़कर
खुद चुपके से रोकर वह,
अपनो को खूब हसाता है।

जेपी सिंह ‘ अबोध ‘

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