जान गयी
देखो ना, जिन्दगी
आज फिर मैं हार गयी
किसी और के लिए
फिर से गलत ठहरा दी गयी ।।
आज फिर मैं यह जान गयी
सच का साथ कोई नहीं देता,
मुक दर्शक बन, बस हर कोयी
अपनी फिराक में लगा होता
फितरत अच्छे से पहचान गयी ।।
जब तक उनकी चाहतो को पूरी करोगे
बस तभी तक, उनकी हँसी को तकोगे
एक इन्कार, सारी असलियत को बतला देती
उनकी छिपे स्वार्थों की झलक हमें दिखला देती
भ्रमर से निकले कैसे, अबूझ सबब डाल गयी ।।
अकेले भी खुद को कह नहीं सकती
कयी ज़िन्दगियाँ हैं, छोङ नहीं सकती
थक गयी हूँ इस मुकाम पर आते-आते
अब और इस तरह बढ भी नहीं सकती
कहाँ, किस कशमकश में कैसे फंस गयी ।।
काश! हालातों से समझौता हमने न किया होता
उलझनों को सुलझाने में आनाकानी न हुआ होता
नासूर सा यह जख्म,इतना गहरा भी न हुआ होता
खुश रहते तुम, मुझे भी इतना गिला न हुआ होता
टालते-टालते, सारा दर्द खुद पर डाल गयी ।।
बहुत खूब, बहुत सुंदर अभिव्यक्ति। वाह
सादर आभार
बेहतरीन
सादर आभार
सुन्दर अभिव्यक्ति
सादर आभार
बहुत सुंदर भाव
लाजवाब लेखनी
सादर आभार मैम
सुंदर रचना
बहुत-बहुत धन्यवाद आपका