भूल गयी खुद को

बनी बनायी राहों पर चलते-चलते
भूल गयी खुद को, औरों की सुनते-सुनते ।
ज़मीर जिसकी गवाही न दे, क्यूँ बढे अबूझ चिन्हों पर
अच्छी बनकर, खुद से लङकर, सह गयी डरते-डरते ।
अपमान का विष, कब तक पान करूँ
कब तक मूक-चीख से प्रतिकार करूँ
थक गयी, संघर्ष की घङियो से, रार करते-करते ।
खुद को कैसे मशगूल रखू, कबतक आखिर धीर धरूँ
रोजमर्रा की बात है ये,आखिर कैसे वहन यह पीङ करूँ
बिखरी आशाओं की लङियाँ, टूट गये सब सहते-सहते ।।

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