कविता : ये दिल बहार दुनियां कितनी बदल रही है

मानवता बिलख रही है
दानवता विहँस रही है
है आह आवाजों में
अस्मिता सिसक रही है
ये दिल बहार दुनियां कितनी बदल रही है ||
ये शाम रंगीली ,सुबह नशीली
उनकी हो रही है
जहाँ निशा निरन्तर ,नृत्य नशा में
भय से क्रन्दन कर रही है
बीच आंगन में मजहबी
दीवार खिंच रही है
नग्नता सौन्दर्य का ,अर्थ हो रही है
ये दिल बहार दुनियां कितनी बदल रही है ||
अँधेरी निशा है ,दिशा रो रही है
नदी वासना की अगम बह रही है
सब कुछ उलट पलट है
काँटों के सिर मुकुट है
कलियों की गर्दनों पर ,शमशीर चल रही है
ये दिल बहार दुनियां कितनी बदल रही है ||
‘प्रभात ‘ रंग रूप की बहारें ,रहती सदा नहीं हैं
बेकार मनुज इस पर ,अभिमान कर रहा है
आज इंसान भी कितना बदल गया है
सम्मान का है धोखा ,अपमान कर रहा है
अभिमान देखिए सिर कितना चढ़ रहा है
है मित्र कौन बैरी ,अनुमान कर रहा है
भू को विनाशने की अणुवाहिनी सज रही है
जर्जर व्यवस्था की ,अर्थी निकल रही है
ये दिल बहार दुनियां कितनी बदल रही है ||

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Responses

  1. आपने गेयता एवं माधुर्य के साथ अपनी सुंदर भावनाओं को उजागर किया है
    एवं तत्सम शब्दों और तुकांत शब्दों के प्रयोग से कविता का शिल्प उच्च हो गया

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