आ मेरे मीत!! कर बहाने मत
आ मेरे मीत!! कर बहाने मत
दे मुझे अश्रु से नहाने मत,
बह रहे भाव खूब आंखों से
अब इन्हें रोक ले, दे आने मत।
जब से फेरी है तूने पीठ मुझे
तब से मन के चिराग मेरे बुझे,
ऐसा लगता है तनिक सी भी नहीं
रही परवाह मेरे मन की तुझे।
यह हवा चल रही है छू कर तन
तेरे बिन हो रही है बस सिहरन
चैन लेकर चला गया है तू
अब यहां बच गई केवल उलझन।
आ मेरी उलझी लट बना जा तू
विरह के गम को अब मिटा जा तू,
आ भले दो घड़ी को आ जा तू
खुद का चेहरा मुझे दिखा जा तू।
———- डॉ0 सतीश चन्द्र पाण्डेय
काव्य विशेषता- यह परकीय विरह की कविता है। इसमें श्रृंगार के वियोग पक्ष को अभिव्यक्त करने का प्रयास है। नायिका की विरह वेदना है।
Very nice poem
बहुत खूब
श्रृंगार के वियोग पक्ष की सुन्दर अभिव्यक्ति । सुन्दर रचना
अतिसुंदर भाव
बहुत सुंदर 👌👌