क्या खोज रहे हो

कविता- क्या खोज रहे हो
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क्या खोज रहे हो,
कहाँ भटक रहे हो,
अंदर सुख हैं-
बाहर सुख नहीं हैं
खुद को मजबूत बना
हरदम लड़ अपने से,
जिस दिन विजय तू पायेगा,
ज्ञानेंद्रिय व कर्मेंद्रिय सहित
मन मति मद चित्त रूह पर
उस दिन ब्रह्म समान हो जाएगा,
न्याय सभ्यता प्रेम करुणा,
अनेका अनेक गुण-
धर्म , ज्ञान-विज्ञान ,दर्शन से
ऊपर उठकर-
राष्ट्र प्रगति विश्व प्रगति में,
जल जनहित पर्यावरण में
ज्ञान की गंगा तुमसे ही
होकर निकलेगी|
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—ऋषि कुमार ‘प्रभाकर’—

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Responses

  1. ऋषि जी आपके भाव सचमुच उच्चस्तरीय हैं। आपकी संवेदना की जड़ बहुत गहरी है। मैं चाहता हूँ कि आपकी लेखनी काफी ऊँचा उठे।

    1. उत्साहवर्धन के लिए समीक्षा के लिए हृदय के संपूर्ण गहराई से आपका आभार

  2. “मन मति मद चित्त रूह पर उस दिन ब्रह्म समान हो जाएगा,”
    अनुप्रास अलंकार से सुसज्जित बहुत ही उत्कृष्ट पंक्तियां। ज्ञान को समर्पित बहुत सुंदर रचना

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