दिल ना-उमीद तो नहीं नाकाम ही तो है
हम पर तुम्हारी चाह का इल्ज़ाम ही तो है
दुश्नाम[1]! तो नहीं है ये इकराम[2] ही तो है
करते हैं जिस पे ता’न[3], कोई जुर्म तो नहीं
शौक़े-फ़ुज़ूलो-उल्फ़ते-नाकाम ही तो है
दिल मुद्दई के हर्फ़े-मलामत[4] से शाद है
ऐ जाने-जाँ ये हर्फ़ तिरा नाम ही तो है
दिल ना-उम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है
लंबी है ग़म की शाम, मगर शाम ही तो है
दस्ते-फ़लक[5] में, गर्दिशे-तक़दीर तो नहीं
दस्ते-फ़लक में, गर्दिशे-अय्याम ही तो है
आख़िर तो एक रोज़ करेगी नज़र वफ़ा
वो यारे-ख़ुशख़साल[6] सरे-बाम ही तो है
भीगी है रात ‘फ़ैज़’ ग़ज़ल इब्तिदा करो
वक़्ते-सरोद[7], दर्द का हंगाम ही तो है
– फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
शब्दार्थ
- ↑ गाली
- ↑ कृपा
- ↑ व्यंग्य
- ↑ निंदा का शब्द
- ↑ आसमान का हाथ
- ↑ अच्छे गुणों वाला यार
- ↑ गाने का वक़्त
👌👌
Very nice
बहुत ही खूब तथा यथार्थ पंक्तियां
कालजई यथार्थ पंक्तियां
सुंदर
श्लाघनीय