khwaishe
ख्वाइशें भी हैं और कुब्बत भी है छू लेने की बुलंदियां ,
मगर, रौंदने का दूसरों को हुनर मैं कहाँ से लाऊँ,
जो हर कदम देखकर भी सोये हैं मेरी मेहनत,
उन फरिश्तों को जगाने का हुनर मैं कहाँ से लाऊँ,
यूँ तो छिपा रखे हैं अभी हुनर कई बाकी,
जहाँ कद्र हो “राही” तुम्हारी वो शहर कहाँ से लाऊँ॥
राही (अंजाना)
atiuttam ji
धन्यवाद्