कुमार आशीष

कविता की राम-कहानी

December 23, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

तुम मुझे देखकर सोंच रहे ये गीत भला क्या गायेगा
जिसकी खुद की भाषा गड़बड़ वो कविता क्या लिख पायेगा
लेकिन मुझको नादान समझना ही तेरी नादानी है
तुम सोंच रहे होगे बालक ये असभ्य, अभिमानी है

मैं तो दिनकर का वंशज हूँ तो मैं कैसे झुक सकता हूँ
तुम चाहे जितना जोर लगा लो मैं कैसे रुक सकता हूँ
मेरी कलम वचन दे बैठी मजलूमों, दुखियारों को
दर्द लिखेगी जीवर भर ये वादा है निज यारों को
मेरी भाषा पूर्ण नहीं औ’ इसका मुझे मलाल नहीं
अगर बोल न पाऊँ तो क्या हिन्दी माँ का लाल नहीं

पीकर पूरी “मधुशाला” मैं “रश्मिरथी” बन चलता हूँ
“द्वन्दगीत” का गायन करता “कुरुक्षेत्र” में पलता हूँ
तुम जिसे मेरा अभिमान कह रहे वो मेरा “हुँकार” मात्र है
मुझे विरासत सौंपी कवि ने वो मेरा अधिकार मात्र है
गर मैं अपने स्वाभिमान से कुछ नीचे गिर जाऊँगा
तो फिर स्वर्ग सुशोभित कवि से कैसे आँख मिलाऊँगा

इसलिए क्षमा दो धनपति नरेश! मैं कवि हूँ व्यापर नहीं करता
गिरवी रख अपना स्वाभिमान धन पर अधिकार नहीं करता
हिन्दी तो मेरी माता है इसलिए जान से प्यारी है
मैंने जीवन इस पर वारा और ये भी मुझ पर वारी है
देखो तो मेरा भाग्य मुझे मानवता का है दान मिला
हिन्दी माँ का वरद-हस्त औ कविता का वरदान मिला

मेरा दिल बच्चे जैसा है मैं बचपन की नादानी हूँ
हिन्दी का लाड़-दुलार मिला इस कारण मैं अभिमानी हूँ
हरिवंश, सूर, तुलसी, कबीर, दिनकर की मिश्रित बानी हूँ
कुछ और नहीं मैं तो केवल कविता की राम कहानी हूँ

 

– कुमार आशीष
+91 8586082041

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स्वतन्त्रता-दिवस

August 9, 2016 in हिन्दी-उर्दू कविता

पन्द्रह अगस्त की बेला पर रवि का दरवाजा खुलता है,
सब ऊपर से मुस्काते हैं पर अंदर से दिल जलता है
जब सूखे नयन-समन्दर में सागर की लहरें उठती हैं,
जब वीरों की बलिदान कथाएं मन उत्साहित करती हैं
जब भारत माता के आँचल में आग आज भी जलती है,
तब भारत के वीरों की कुर्बानी मुझको खलती है

जब लाल किले के संभाषण से गद्दारी की बू आये,
जब नेता-मंत्री के अधिवेषण मक्कारी को छू जाये
जब शब्दों से बनी श्रृंखला में कवि नेताओं के गुण गाये,
जब भ्रष्टाचार व लूट-पाट ही भारतवासी के मन भाये
जब ये सारा माहौल देख भारत माँ जीते जी मरती है,
तब भारत के वीरों की कुर्बानी मुझको खलती है

जब भारत कानून पुस्तकों के पन्नों पर बंद पड़ा हो,
जब भारत को छलने वाला अपराधी स्वच्छंद खड़ा हो
जब भारत के मनमुद्रा पर अमेरिका का कनक जड़ा हो,
जब कश्मीर हड़पने खातिर पाकिस्तानी आन अड़ा हो
जब वीर शहीद की विधवा और बहने लावारिश सी पलती है,
तब भारत के वीरों की कुर्बानी मुझको खलती है

जब भूखे बच्चे सोते हैं रातों में उठकर रोते हैं,
जब लाचारी से ग्रसित हुए माँ-बाप भी धीरज खोते हैं
जब नेता-मंत्री अपने घर पर रोज त्यौहार मनाते हैं,
जब तरह-तरह पकवान बने नोटों से मेज सजाते हैं
जब सारी प्रजा देख राजा को केवल हाथ ही मलती है,
तब भारत के वीरों की कुर्बानी मुझको खलती है

जब वीर शिवाजी की तलवारें टंगी हुईं संग्रहलय में,
जब राणा प्रताप के स्वाभिमान का मोल हो रहा मंत्रालय में
जब मंत्री जनता से मिलने में आना-कानी करते हैं,
जब जनता का पैसा खाकर अपनी अलमारी भरते हैं
जब नेताओं के दृष्टि-कोण में जनता की ही सब गलती है,
तब भारत के वीरों की कुर्बानी मुझको खलती है

जब भारत में मासूमों की दी जाती कुर्बानी हो,
जब भारतमें व्यथा-वेदना की अनलिखी कहानी हो
जब भारत माँ के आँचल में दूध नहीं हो पानी हो,
जब अपहर्ता के हाथों में भारत की निगरानी हो
जब भारतमें प्रगति की गाड़ी रुक-रुक कर चलती है,
तब भारत के वीरों की कुर्बानी मुझको खलती है

जब हिमगिरि के शिखर श्रृंग से रक्तिम नदियाँ बहतीं हैं,
जब गंगा की पावन धारा कर्दम-कांदो सहती हैं
जब भारत माता पीड़ा सहकर सदा मौन ही रहती है,
जब धरती माँ धीरज धरती कभी न कुछ भी कहती है
जब किस्मत भी चला दाँव केवल किसान को छलती है,
तब भारत के वीरों की कुर्बानी मुझको खलती है

जब सदाचार और मर्यादायें केवल कागज़ पर जीवित हों,
जब मेरे अंतर की ज्वाला केवल कविता तक सीमित हो
जब भारत माँ की भुजा कटे और कोई पकिस्तान बने,
जब संस्कार और आदर्शों का निर्धन हिन्दुस्तान बने
जब कुछ सिक्कों के लालच में प्रतिमान की बोली लगती है,
तब भारत के वीरों की कुर्बानी मुझको खलती है

जब द्रुपदसुता के आमंत्रण को मुरलीधर ठुकराते हों,
जब बिन सीता को साथ लिए श्री राम अयोध्या आते हों
जब चारों भाई आपस में ही सौ-सौ युद्ध रचाते हों,
जब धर्मराज भी अनाचार से अपना राज्य चलातें हो
जब दुर्योधन की श्लाघा में बंसी मोहन की बजती है,
तब भारत के वीरों की कुर्बानी मुझको खलती है

 

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