अंदर-अंदर क्यों घुटीयाते हो!!

मन में जो इतने ख्वाब बने, वो आखिर किसे समझाते हो,
लिखते इतना अच्छा हो पर जताकर किसको पास बुलाते हो,,
तुम्हारे मन में भी फिर-फिर कर यह सवाल आता होगा,,
बहुत हरे-भरे रहते हो, पर अंदर-अंदर क्यों घुटीयाते हो!!

बचपन में कुछ ऐसा हुआ, लगने लगा मन हुआ बड़ा,,
ह्रदय संजोये प्रेम-भाव फिर, पलटने जग हुआ खड़ा!!
देखकर उसको मैं अकसर, बस उसमे ही रम जाता था,,
पास उसको पाकर तो दुनियादारी से मन उठ जाता था!!
आज पास नहीं हैं वो मेरे,, बस नयन बसाये रखता हूँ,,
निकल न पाए वो यहाँ से, सो अश्रु-बूंद तक नहीं बहाता हूँ!!
दूर हैं अब तलक मुझसे, बस मुहब्बत-ए-लड़कपन ने लाचार किया,,
अगर बनता जिद्द वो मेरी तो, खुद शाम तक बांहों में होता पिया!!
मेरे नादान-आवारापन पर, हाये उसका पावन भोलापन,,
ख्याली बंजारेपन में भी सावन बनने का सयानापन,,
अब क्यों खामखां मन के भावों को यूँ ही रचियाते हो,,
बहुत हरे-भरे रहते हो, पर अंदर-अंदर क्यों घुटीयाते हो!!

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