एहसास
.एहसास
खोज कर रही हूं,
जिंदगी कही चली गयी है ।
कुछ कहा भी नही,
कोई संदेश नही,
कुछ पता नहीं, नहीं तो मै रुठने ही नहीं देती।
ले जाती उसे बाग में,मॉल मे,किसीं झिल के किनारे,
या फिर किसीं ऐसी जगह जहाँ
उसका दिल बहल जाता, ….थोडा सुकून मिलता ।
मैने सोचा ही नहीं,कितनी खुदगर्ज हुं मै,
हां, मैने अंधेरे में कुछ पन्नो के टुकडे देखे जरूर थे
सिसकीयां भरते हुए,
मैनेही उठाकर फेंक दिये थे,
वैसे तो लगता था के सबकुछ ठीकठाक है,
पर शायद नहीं,
इस भरी भीड में मै कितनी खो गयी,
मेरा पती,मेरे बच्चे,मेरा घर,मेरे लोग.
और कभी देखा ही नही उसकी तरफ मुडकर.
जबकी मेरे सफेद बाल, मेरा अकेलापन,
मेरा खाली बँक बॅलन्स अब पुछने लगे है ।
कल चाय की प्याली क्या गिर गयी,
बस ऐसें तेज शब्द गिर पडे,
आंखे भी आग बबुला सी,
तब ……तब कही कुछ एहसास होने लगा है,
जिंदगी कही चली गयी है ।
मै ढुंढ रही हुं उन पन्नों को
शायद कुछ लब्ज छोड गयी हो ।
अपनों को खुश रखने की चाह में ,हम अपनी खुशी और अभिलाषाओं को भूल जाते हैं। यही बात कविता में बहुत ही बेहतरीन तरीके से प्रस्तुत की गई है।
बहोत बहोत धन्यवाद मोहनजी! प्रतिक्रिया बहुत सुंदर!
दूसरों को खुश करते करते स्वयं को भूल जाना….हम महिलाओं की इस आदत का सुंदर चित्रण किया है…. बहुत ख़ूबसूरत
थँक्यू गीता जी
सुंदर
Thanks vasundhara
वाह
Dhanyawad vinayji!
वास्तविकता है यह कि अपनी जिम्मेदारी निभाते निभाते पता ही नहीं चलता है कि कब जिंदगी निकल गयी। साधारण शब्दों में बड़ी बात कही गयी है। ‘मेरा पती,मेरे बच्चे,मेरा घर,मेरे लोग’ सुन्दर आनुप्रासिक छटा बिखेरी गयी है। तत्सम, तद्भसव, अरबी-फारसी, और अंग्रेजी शब्दों का तालमेल देखने लायक है।
बहुत धन्यवाद आपका.वैसे मराठी ज्यादा लिखती हुं.लेकीन आप जैसे जानकार यहाँ हैं,तो सिखने मे आनंद आयेगा.thanks again satish ji.
aapka hardik swagat
थँक्यू सतीश जी
Grihasti ko ek Mahila kis Prakar chalati hai aur taken cut Narayan ka Samna karna padta hai yah Ek Mahila hi behtarin tarike se jaan sakti hai aur aapane ruk Nahin Kavita ke Madhyam se bahut hi Sundar Bhagwan Ko vyakt Kiya Hai
धन्यवाद अभिषेक जी.