कविता — बिका हुआ खरीददार
बेशक; तुम खरीद लोगे!
……………… बिछाओगे
निचोड़ कर फेंक दोगे; मुझे
: एक हिकारत के साथ…..
लेकिन; फिर भी हार जाओगे !
हाँफती साँसों से यकीनन
: कैसे पार पाओगे ?
पीड़ा और समर्पण से गुज़रकर
मुस्कुराऊंगी : मैं—-विजयी बनकर
क्योंकि ;
अपने दाम———–
मैंने खुद तय किए हैं.
aapki kavita ko naman _/\_ _/\_
aprateem kavya
वाह बहुत सुंदर रचना ढेरों बधाइयां