ख्याब टूटी, दुनिया लूटी, बिखड़े सभी सहारे ।
ख्याब टूटी, दुनिया लूटी, बिखड़े सभी सहारे ।
अपनों ने गैर कहा, और गैरों ने अपने । ।
यहीं है, जहां की दस्तुर पुरानी, बची है कुछ आसें ।।1।।
टूटे के बिखड़ जाते, सभी मतलब के रिश्ते ।
मतलब से ही याद करते जहां में, लोग अपने हो या पराये ।।
यहीं है, जहां की दस्तुर पुरानी, बची है कुछ आसें ।।2।।
अब ना कोई किसी का मात-पिता, भाई-बहन, पत्नी-पुत्र व कोई रिश्ते ।
आशा के बंधन में बँधे रहते है, ये एक-दूसरे के संगे ।।
यहीं है, जहां की दस्तुर पुरानी, बची है कुछ आसें ।।3।।
अब खेल जगत का कैसा है, लोग दिलों से खेलते है ।
और भर जाते है, जब मन तो गैरों से दिल को जोड़ते है ।।
यहीं है, जहां की दस्तुर पुरानी, बची है कुछ आसें ।।4।।
अब लोग सिर्फ धन के पीछे भागते है,
और इसके कारण बुरे कर्म करते है,
और वह पाप का हकदार बनते है ।।
यहीं है, जहां की दस्तुर पुरानी, बची है कुछ आसें ।।5।।
अब क्या कहें हम लोगों से, इनको क्या समझायें हम ।
ये तो पत्थर के मूरत है, ये कभी नहीं समझते हैं ।
यहीं है, जहां की दस्तुर पुरानी बची है कुछ आसें ।।6।।
तुलसीदास जी कहते है,
इस जहां में सुर-नर-मुनि सब स्वारथ के कारण प्रीति रखते है,
और मतलब से ही रिश्ते निभाते है, व बेमतलब ही भूल जाते हैं ।।
यहीं है, जहां की दस्तुर पुरानी, बची है कुछ आसें ।।7।।
अब हम ना बढ़ायेंगे इन लोगों से नजकीदियाँ,
ये तो दुरियाँ के हकदारी है ।
इनसे बचके रहने में ही, हमारी भलाई है ।।
यहीं है, जहां की दस्तुर पुरानी, बची है कुछ आसें ।।8।।
अब हम ना करेंगे इन लोगों से प्रीति,
ये तो स्वारथ के भिखारी है ।।
इनसे बचके रहने में ही हमारी भलाई है ।।
यहीं है, जहां की दस्तुर पुरानी, बची है कुछ आसें ।।9।।
अब क्या बताये रिश्तों की सच्चाई,
ये तो अपने को भी नहीं बख्ते है,
तो गैरों को क्या छोड़ेंगे ।।
यहीं है, जहां की दस्तुर पुरानी, बची है कुछ आसें ।।10।।
अब खेल दिलों का होता है,
खिलौने अब बिकते नही ।
और अब वह खिलौने वाले अपनी किस्मत पे रोते है ।।
यहीं है, जहां की दस्तुर पुरानी, बची है कुछ आसें ।।11।।
अब तोड़के सभी रिश्ते-नाते को लोगों दिलों से खेलते है ।
और अपनी रईसी की रौब मुफलिसों को दिखाते है ।।
यहीं है, जहां की दस्तुर पुरानी, बची है कुछ आसें ।।12।।
ख्याब टूटी, दुनिया लूटी, बिखड़े सभी सहारे।
अपनों ने गैर कहा, और गौरों ने अपने ।।
यहीं है, जहां की दस्तुर पुरानी बची है कुछ आसें ।।13।।
अब क्या कहें हम लोगों से, इनको क्या समझायें हम ।
ये तो पत्थर के मूरत है, ये कभी नही समझते है ।।
यहीं है, जहां की दस्तुर पुरानी बची है कुछ आसें ।।14।।
ख्याब टूटी, दुनिया लूटी, बिखड़े सभी सहारे ।। 15 ।।
विकास कुमार
काकभाषण
दोष पराय देखि के चला हसत-हसत ।
आपन याद न आवे जिसक आदि न अंत ।।