नहीं लगता

अकेली नही हूँ,पर तन्हा तो हूँ,

यहाँ हूँ तो सही,पर पता नही कहाँ हूँ।

कैसे कहु और किससे कहु ,

मेरे मन की व्यथा ये।

सब कुछ होते हुए भी, क्यों तन्हा हूँ मैं।

भीड़ से दुनिया की घिरी हूँ हरदम,

अपने और अपना कहने वाले बहुत है।

पर क्यों फिर भी कोई  अपना नहीं लगता।

कहने को तो चाहते है बहुत,

पर कोई सच्चा चाहने वाला नही दिखता।

कहने को तो बहुत मुसाफिर है राहो में मेरी,

पर मुझे कोई हमसफर क्यों नही लगता।।

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Responses

    1. एक शायरी याद आ गयी इस poem पे
      कशमकश है तुझे जख्म दिखाऊ किसे और किसे नहीं
      माना बेगाने समझते नहीं और अपनों को दिखते नहीं
      लेकिन हौसला ना हार गिरकर ए मुसाफिर
      जहाँ मिला दर्द तुझे, दवा भी मिलेगी वहीँ…
      बस आँखों में पड़ी धूल हटाने की जरुरत है…?☺

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