पुरुष
इतना भी आसान नहीं होता
पुरुष होना।
जिम्मेदारियों का बोझ उठाकर हरदम मुस्कुराना होता है।
एक पुरुष को
सशक्त होना पड़ता है
अपने परिवार के लिए।
वह समस्याओं बाधाओं की शिकायत नहीं करता बल्कि खुद ही ढूंढता है हल उन समस्याओं से बाहर आने का।
बाहर से कठोर अंदर से नरम,
कभी-कभी अपना कठोर आवरण तोड़ बाहर आ जाता है
अपना बचपन जीने।
कुछ पल बचपन जी कर फिर से खुद को बना लेता है कठोर।
अपने परिवार के लिए पुरुष कर्ता,धर्ता और भरता बन आशा और विश्वास का प्रतीक बन जाता है।
पुरुष एक हाथ से साधता है परिवार व दूसरे हाथ से छू लेना चाहता है आकाश।
दोनों कंधों पर पूरे परिवार का बोझ उठाए तनिक भी नहीं घबराता।
अपने परिवार के लिए खुद को झोक देता है अग्निकुंड में।
हवन कर देता है अपने सारे शौक अपनी सारी इच्छाएं
और तृप्त हो जाता है परिवार के खिले चेहरे देख
और ले लेता है कुछ घंटों की नींद
क्योंकि पर चल पड़ना है उसे बिना थके अपनी राहों पर।
कभी रोना चाहता है पर रोता नहीं।
पुरुष है बना रो कैसे सकता है!
और जब कभी पुरुष रोता है
तो उसका रुदन कंपा देता है पूरे परिवार को।
हिल जाती है नींव उस परिवार की
जिस परिवार में पुरुष रोता है।
निमिषा सिंघल
Yatharth chitran
Correct
Good
Nyc
गुड
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