बचपन का खेल
Shakun Saxena
उछाल उछाल कर पापा मुझे दिल्ली दिखाते थे,
हंस हंस कर पापा को मैं खूब रिझाती थी,
भरोसे का अटूट रिश्ता था हमारा,
छूट कर हाथो से मैं फिर हाथो में आ जाती थी,
आज पापा मुझको हाथों में उठा नहीं पाते,
उछाल कर मुझको वो दिल्ली दिखा नहीं पाते,
उछलकर देखती हूँ मैं खुद पर मुझे कोई दिल्ली नहीं दिखता,
होटो पर हंसी का अब कोई गुव्वारा नहीं फूटता,
सोंचती हूँ पापा मुझे कैसे उड़ाते थे,
कैसे मेरी आँखों को वो दिल्ली दिखाते थे,
मैं फूले ना समाती थी हंस हंस कर रो जाती थी,
काश हो जाऊ मैं फिर एक बार छोटी,
बन जाउ फिर पापा की वो प्यारी सी बेटी,
छू लू फिर आसमाँ पापा के हाथो से उछलकर,
देख लू एक बार फिर मैं अपने बचपन की दिल्ली॥
राही (अंजाना)
Awesome
Thanks bro
Beautiful