बच्चे हम फूटपाथ के,
दो रोटी के वास्ते,
ईटे -पत्थर तलाशते,
तन उघरा मन बिखरा है,
बचपन अपना उजड़ा है,
खेल-खिलौने हैं हमसे दूर,
भोला-भाला बचपन अपना,
मेहनत-मजदूरी करने को है मजबूर
मिठई, आईसक्रीम और गुबबारे,
लगते बहुत लुभावने ,
पर बच्चे हम फूटपाथ के,
ये चीजें नहीं हमारे वास्ते,
मन हमारा मानव का है,
पर पशुओं सा हम उसे पालते,
कूड़ा-करकट के बीच,
कोई मीठी गोली तलाशते,
सर्दी-गर्मी और बरसात,
करते हम पर हैं वर्जपात,
पग -पग काँटे हैं चुभते,
हम फिर भी हैं हँसते,
पेट जब भर जाए कभी,
उसी दिन त्योहार है समझते,
दो रोटी के वास्ते पल-पल जीते -मरते,
बच्चे हम फूटपाथ के ।।