मेरी भोली सी कविता कहीं खो सी गई है
मेरी भोली सी कविता
कहीं खो सी गई है
उसकी मासूम हंसी आंखों से
ओझल हो सी गई है
ये खोई है तर्क वितर्को मैं
इस गद भाषा के फर्को में
आज के इस दर्द को लिखते लिखते
मासूम परी मेरी रो सी गई है
मेरी भोली सी कविता
कहीं खो सी गई है
अब घर बार मिलती नहीं है
खुशियों से अलग हो सी गई है
दर्द भर लिया है
जमाने का खुद में
अब दर्द से विचलित हो सी गई है
नींद उड़ गई है लाढो कि मेरी
तभी नयन में आशु पीरो सी गई है
मेरी भोली सी कविता
कहीं खो सी गई है
कांप जाती है कोठरी मेरी
जब सिसकियो से वो रो गई है
इस संसार की माला में
सच्चाई के मोती पिरो सी गई है
लिपट के रोती है गले से मेरे
मेरा दामन थोड़ा देखो से गई है
मेरी भोली सी कविता
कहीं खो सी गई है
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