ये चली कैसी हवा ….!
ये चली कैसी हवा ….!
सोचा था खरीदार बन,
आया हूँ इस जहाँ मे मैं,
ये चली कैसी हवा, कि बिकता ही चला हूँ मैं…..…. ! .
जाना था मुझको कहाँ, और,
आ गया किस मोड़ पर,
अपनी चाहतों को दूर ही कहीं पे छोड़ कर,
कि अपना कहने को ख़ुद ही को,
ख़ुद से ही डरता हूँ मैं, ये चली कैसी हवा,
कि बिकता ही चला हूँ मैं …..…!. .
पास है सबकुछ मेरे, पर फ़िर भी जाने क्या कमी,
भाग दौड़ के भंवर में, सूझता भी कुछ नहीं,
क्या मुझे पाना है, जिससे बेचता हूँ ख़ुद को मैं…
ये चली कैसी हवा, कि बिकता ही चला हूँ मैं ……..…. ! .
उलझने दिल की न सुलझीं, कोशिशें कितनी थी कीं,
दिल कहीं है और,
ख़ुद को ढूँढता हूँ मैं कहीं, बाट तू मुझको दिखाए,
बाट ही तकता हूँ मैं…..
ये चली कैसी हवा, कि बिकता ही चला हूँ मैं………! .
सोचा था खरीदार बन, आया हूँ इस जहाँ मे मैं ….? .
“ विश्व नन्द ”
nice!
Thanks for the comment. A colleague of mine who had joined the company as a Purchase Manager was suddenly transferred to sales division as a Sales Manager, as part of job rotation program introduced in the organisation for officers and felt very greatly unnerved, I joked “Socha tha kharidar ban aayaa hun is company me main, ye chali kaisee havaa ki bechane chalaa huun main.” This philosophical poem got written triggered by that incident,
वाह
Good
Very nice