रशमें – ए – इश्क़

जब महफ़िल – ए – इश्क़ में , निग़ाह से निग़ाह टकराई …

दिल की बात चेहरे पर उभर आई ….

 

अँधेरे में डूबे मेरे एक एक लम्हे को रोशन करने ….

उसने क्या ख़ूब कंदीले – ए – मुस्कराहट जलाई ….

 

ख़ामोश थी उसकी जुबां , ख़ामोश एक एक अल्फ़ाज़ ….

मुझे अपने दिल की और ले जाने ,  स्वागत में उसने पलके बिछाई…

 

मैं तो वाकिफ़ था नशा – ए – उल्फ़त से …..

वो एक मरतबा फिर ज़ाम – ए – चाहत बना लाई …

 

बिखरें इस सुख़नवर को , क्या खूब मोहब्त से समेटा उसने …

एक अलग अंदाज़ में रशमें – ए – इश्क़ निभाई ….

 

इश्क़ के वसन में कुछ यूं लपेटा उसने  ख़ुद को ….

मेरे साथ रहने , बन गयी मेरी परछाई …

 

ख़ुशी हुई मिलकर उस से इस क़दर  , पंकजोम ” प्रेम ”

की दूर हो गयी बरसों पुरानी तन्हाई …..

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