” राह – ए – माबूद “

थोड़ा रंज में , थोड़ी ख़ुशी में , साल ये बीता ….

ख़ुद की मोहब्त को हारा , लेकिन फिर भी जीता ……

 

मुसलसल हैं आज भी यादों का कारवाँ ….

थोड़ा तन्हा , थोड़ा मुस्कुराकर हूँ लिखता …

 

मुसाफ़िर हूँ यारों  , मंज़िल का पता नहीं ..

इक टक लगायें राह – ए – माबूद हूँ देखता …

 

जाने वाले चले गए अपना बना कर ….

आख़िर कोई क्यों नहीं , जाने वालों को रोकता ….

 

कल मेरी मोहब्त किसी और की हो गयी ….

मैं समझा , ना जाने क्यों ये दिल नहीं समझता ….

 

और भी है रंग जमाने को अपने ” पंकजोम ” प्रेम ….

लेकिन उस रंग के बग़ैर , कोई और रंग नहीं जमता ….

 

 

मुसलसल – निरन्तर 

माबूद – ईश्वर

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