लाख अपने गिर्द हिफाजत की लकीरें खीचूँ

लाख अपने गिर्द हिफाजत की लकीरें खीचूँ,
एक भी उन में नहीं “माँ ” तेरी दुआओं जैसी,

लाख अपने को छिपाऊँ कितने ही पर्दों में,
एक भी उन में नहीं “माँ” तेरे आँचल जैसा,

लाख महगे बिस्तर पर सो जाऊँ मैं,
एक भी नहीं “माँ” उनमें तेरी गोद जैसा,

लाख देख लूँ आइनों में अक्स अपना,
एक आइना भी नहीं “माँ” तेरी आँखों जैसा,

लाख सर झुका लूँ उस मौला/भगवान के दर पर,
एक दरबार भीं नहीं “माँ” तेरे दर जैसा॥
राही

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