“लाडली”
मैं बेटी हूँ नसीबवालो के घर जनम पाती हूँ
कहीं “लाडली” तो कहीं उदासी का सबब बन जाती हूँ
नाज़ुक से कंधो पे होता है बोझ बचपन से
कहीं मर्यादा और समाज के चलते अपनी दहलीज़ में सिमट के रह जाती हूँ
और कहीं ऊँची उड़ान को भरने अपने सपने को जीने का हौसला पाती हूँ
मैं बेटी हूँ नसीबवालो के घर जनम पाती हूँ
पराया धन समझ कर पराया कर देते हैं कुछ मुझको
बिना छत के मकानो से बेगाना कर देते हैं कुछ मुझको
और कहीं घर की रौनक सम्पन्नता समझी जाती हूँ
मैं बेटी हूँ नसीबवालो के घर जनम पाती हूँ
है अजब विडंबना ये न पीहर मेरा ना पिया घर मेरा
जहाँ अपनेपन से इक उमर गुजार आती हूँ
फिर भी घर-घर नवदीन पूँजी जाती हूँ
मैं बेटी हूँ नसीबवालो के घर जनम पाती हूँ
हैं महान वो माता-पीता जो करते हैं दान बेटी का
अपने कलजे के टुकड़े को विदा करने की नियति का
क्योक़ि ये रीत चली आयी है बेटी है तो तो विदाई है
फिर भी मैं सारी उमर माँ – बाबा की अमानत कहलाती हूँ
मैं बेटी हूँ नसीबवालो के घर जनम पाती हूँ
है कुछ के नसीब अच्छे जो मिलता है परिवार उनको घर जैसा
वरना कहीं तो बस नाम के हैं रिश्ते और बेटियां बोझ समझी जाती हैं
काश ईश्वर देता अधिकार हर बेटी को अपना घर चुनने का
जहां हर बेटी नाज़ो से पाली जाती है और “लाडली” कहलाती है
और “लाडली” कहलाती है…..
अर्चना की रचना “सिर्फ लफ्ज़ नहीं एहसास”
Nice
Nice
Good
Nice
सुन्दर
this poem is reflection of truth of our society
Wah