सोच का समन्दर

अपनी सोंच के समन्दर से ज़रा, बाहर निकल कर तो देख,
उसको पाना है तो ज़रा प्रह्लाद बन कर तू देख।
अपनी किस्मत के भरोसे न बैठ, कदम बढ़ा कर तो देख।
मन्ज़िल है पानी तो ज़रा कर्ण के विश्वास को तू देख।
ना झुकअपनी हार के आगे, ज़रा सर उठा कर तो देख।
गिरती है सौ बार फिर भी चढ़ जाती है दिवार पर।
उस छोटी सी चींटी की हिमाकत तू देख।
मत सोंच परिंदों के पंख हैं उड़ने को।
इरादों का दम तो भर, छू लेगा तू भी आसमानों को ज़रा अपने हौंसलों के पंख फैला कर तू देख।(अंजाना)
राही….

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