ग़ज़ल
ग़ज़ल
: अनुपम त्रिपाठी
इक शख्स कभी शहर से ;
पहुँचा था गाँव में ।
अब रास्ते सब गाँव के ;
जाते हैं शहर को ।।
खेत–फ़सल–मौसम ;
खलिहान हैं उदास ।
ग़मगीन चुभे पनघट ;
हर सूनी नज़र को ।।
कुम्हलाने लगे ” चाँद” ये;
घूंघट की ओट में ।
पायल से पूछें चूडियाँ ;
कब आयेंगे घर ” वो ” ।।
बेटा निढाल हो के ;
हर रोज पूंछे माँ से ।
क्यूं छोड़ गया बापू ?
इस गाँव को– घर को ।।
गाँवों में कम है : सुविधा;
पर अपनापन महकता ।
बेहतर है रुखी–सूखी;
ये अपनी गुज़र को ।।
सुनते हैं रहती गाँवों में;
भारत की आत्मा ।
शहरों में क्या है : जादू ?
लगे आग शहर को ।।
डंसती है रात बैरन ;
झुलसाए मदन तन–मन ।
कैसे बताऊं साजन ;
मैं ! पीती ज़हर जो ।।
हुक्के में डूबा ” बापू ” ;
अलाव बन गया ।
किसको दिखाऊं ” अनुपम”
इस चाक़— जिग़र को ।।
: अनुपम त्रिपाठी
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पायल से पूछें चूडियाँ ;
कब आयेंगे घर ” वो ” …… subhan allah….
आदरणीय विजयजी; कृषि के लाभ का सौदा न रहने और हस्तकौशल का मशीनीकरण की बलि चढ़ जाने से ; रोजगार की तलाश में गाँवों का जो पलायन शहरों की ओर हो रहा है——उसी टीस का बयान है—-यह रचना।प्रयास रहा है कि; अर्थोपार्जन हेतु मर्म को कितनी चोट पहुंचती है।कुछ व्यवस्थाओं की विसंगतियां—-कुछ विकास की विद्रुपता —-कुछ जीवन यापन की मज़बूरियां और अंतत: इन सबका खा़मियाजा भुगगता बचपन और उपेक्षित यौवन।दर्द की जु़बां होती तो वो अलहदा और क्या कहता ? आभार आपके प्रोत्साहन हेतु।
nice
आभार आपका।
बहुत सुंदर
सब कहीं दिखाई देते हो आप