अंजान सफर
मंज़िल पता नहीं, निकला हूं अंजान सफर में।
अमृत ढुंढने निकला हूं , दुनिया भरी ज़हर में।
इंसानियत बांध कर सभी ने, रख दी ताक पर,
डरता हूं कहीं गिर ना जाऊं, खुद की नज़र में।
नज़रें चुराकर चले हैं जो, ज़ुल्म होता देखकर,
आईना बेचने निकला हूं मैं, अंधों के शहर में।
आबरू महफूज़ है, ना कोई जाने- हाफ़िज़ है,
लूटने के बाद निकले हैं लेकर, शम्मा डगर में।
ख़ुदा भी खुद रोया होगा, हालाते-जहां देखकर,
ऐसी तो न सौंपी थी दुनिया, ‘देव’ मेरी खबर में।
देवेश साखरे ‘देव’
Nice gajal
Thank you
वाह
Thanks
वाह
Thanks
Good
Waah