अनबूझ पहेली
बचपन जिस आंगन में बीता,
वह बस एक पड़ाव था मंजिल का।
उन रास्तों से आगे बढ़कर,
मंजिल तक जाना बाकी था।
जिस घर में उस ने जन्म लिया
क्या पता था!!
यह घर उसका नहीं
ससुराल चली तो सोच मिली,
चलो अपने घर में आज चली।
लेकिन सपना फिर झूठा था!!!!
ससुराल लुभावना धोखा था!!!!
अपना घर किसको कहते हैं???
यह अब भी समझना मुश्किल था!!
जिस शहर में जन्मी थी बहू उस घर की,
वह शहर था बस पहचान उसकी।
घर ना तो मायके वाला रहा,
ना ससुराल ने दी पहचान कोई।
कैसी विडंबना एक स्त्री की है,
अपना घर किसको कहते हैं!!
अनबूझ पहेली तब भी थी,
अनबूझ पहेली अब भी है।
निमिषा सिंघल
सुन्दर रचना
Dhanyavad
Bahut khoob
Dhanyavad aapko
Good
Thank you
Very nice
धन्यवाद आपको
वाह बहुत सुंदर रचना
Thank you so much