अन्नदाता
समझ में बिलकुल नहीं आता
ये कैसी फितरत है इनकी
जहाँ देखा नफ़ा अपना
हाथ थाम ली उनकी ।
हल्ला मचा करके बस बात रखनी है
फिक्र कहाँ इनको, अपनी भेट भरनी है
हमारे धरतीपुत्र भटकते फिर रहे दर-दर
इन्हे तो बस अपने मन की करनी है ।
हमारे देश की धूरी “कृषि” जो कहलाती है
किसानों के बल पर ही, धरा खिलखिलाती है
उन किसानों की ये मजबूरियाँ कैसी
खुदकुशी करने को जो उकसाती है ।
कोई खुशी से कैसे खुदको लील जाएगा
कृषक क्यूँ भला खुद को आजमाएगा
विकास भला क्या उस मुल्क का हो पाएगा
जहाँ अन्नदाता ही जिन्दगी से हार जाएगा ।
कुछ नयी कोशिश इन्हें एकबार करने दो
नीति बना ऐसी, वाजिब हक तो मिलने दो
कृषि करके भी उन्हें खुद पे फक्र करने दो
सही मायने में,अन्नदाता को अधिकार मिलने दो।
यथार्थपरक, बहुतसुन्दर प्रस्तुति
अतिसुंदर रचना
Bahut khoob
सुन्दर अभिव्यक्ति