अलविदा इक्कीस
साल गुजरता अलविदा कर ही गया।
यादों को उम्मीदों से जुदा कर ही गया।
उम्मीदें उतर आई शाम के परिंदों सी,
पर पुराना होकर भी कुछ नया सिखाकर ही गया।
जीने के कुछ और पैंतरे हासिल हुए इस साल
कोरोना में जितना रोना था रुलाकर ही गया।
कितनी है इक्कीस को ‘किस’ करने की वजहें
उतनी ही भुलाने की भी ये बता कर ही गया।
कहीं अपनो ने अपनो को मार दिया तो कहीं,
कोई सरहद का जवान सबको बचा कर ही गया।
कहीं तालिबान की सरकार बनी तो,
कही सरकारें तालिबानी बना कर ही गया।
किसान और जवान छाए रहे हर क्षण,
बाकी सभी है दर्शक ये जता कर ही गया।
उधार पर जी रहे थे हम, और कर लिया हमने,
फिर भी कुछ अरबपति बढ़ाकर ही गया।
रोजी के लिए बच्चे उलझे, रोटी के लिए बुजुर्ग,
टीके के लिए तो घमासान कराकर ही गया।
अभी जिंदा हूं फिर क्या, खिलौने सा सही,
ये मेरी जीत है एहसास दिला कर ही गया।
स्वरचित रचना
प्रवीण शर्मा
Nice thought
शुक्रिया प्रज्ञा जी और नववर्ष की शुभकामनाएं स्वीकार करे
Aapko bhi