” क्या; यह सच नहीं ! “
“ यादों की यलगार “
नहीं आती याद तुम्हारी !
गोयाकि ; भूला भी नहीं मैं : तुम्हें !!
मंडराती रहीं कटी पतंग-सी : तुम !
मेरे मन के आँगन मेँ : गुमसुम !!
तुम्हें पाने के लिए भागता रहा : मैं
मर्यादा की मुंडेर तक
गिरने से बे—–ख़बर
एक
एक
कर
चुरातीं रहीं तुम —- मेरे सपने
अपने सपनों मेँ घोलकर
सोतीं रहीं; मीठी नींद : रात—भर
“मैं ; उम्र—भर जागता रहा ………..
तृष्णा लिए भागता रहा …………..”
कहाँ से लाऊं —– तुम्हारे सपने ?
लाया भी; तो —- कैसे बनाऊँ अपने ??
मेरे माथे की; ‘भाग्य—रेखा’ से, मिटाकर नाम
ऊकेर दी गईं; तुम !
किसी अजनबी हथेली पर
: ‘जीवन—रेखा’ की तरह
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bahut khoob sir ji
behtareen ji
धन्यवाद रोशन जी
आभार निरंजन जी
Good
बहुत सुंदर