खिलने भी दे
विष मेरे भीतर
जमा मत जमा होना,
तनिक भी नहीं,
जरा भी नहीं।
न चाह कर भी तू
बिछाने लगता है परतें,
जिससे शिखर के बजाय
नीचे की तरफ
खींचती हैं गरतें।
प्रेम की धारा को
सैलाब बनने दे,
निकल जाये सब गर्द बाहर
भर जायें गरतें,
जमें मुहब्बत की परतें।
हवा चारों तरफ की
उड़ा कर ले आती है
न जाने कब धूल,
जो जमा देती है
मेरे मन की खिड़कियों में
परतें,
साफ की, फिर जमा।
कुछ दिन के बाद फिर वही हाल,
व्यक्तित्व बेहाल।
कब जमी धूल
पता ही नहीं चल पाता,
धूल की परत से दबा मन का गुलाब,
खिल नहीं पाता।
विष अब रहने भी दे,
अमृत सा कुछ
बनने भी दे,
कांटों के बीच
गुलाब खिलने भी दे,
व्यक्तित्व महकने भी दे,
इंसान सा बनने भी दे।
बहुत खूब
बहुत बहुत धन्यवाद रोहित जी
जिंदगी का चित्रण प्रस्तुत करती हुई कवि सतीश जी की बहुत सुंदर रचना, उत्तम लेखन
बहुत बहुत धन्यवाद गीता जी
Very nice sir
Thanks ji
बहुत उच्चस्तरीय कविता लिखी है सर, वाह क्या बात है।
Thank you