दर्द का उम्र

जीवन के इस सफर में टूटी हूं कई बार,
घायल होकर दर्द में तड़पी हूं कई बार,
पर हर दर्द का अपना हिसाब रहा,
कोई बस तन पर एक दाग बन जमा रहा,
और कोई टीस बनकर हृदय में चुभता रहा;
कभी किसी पत्थर से हुई हमारी टकरार
कभी घायल हुई लगके चाकू की नुकीली धार,
गिरी हूं कई बार सीखते हुए सायकल सवार
छलनी हुआ था बदन जब बसा था मेरा संसार,
पर इन क्षणिक दर्दों का नहीं कोई भार,
इनसे तो आई थी जीवन में हमारे बहार,
उमर पड़ा था जैसे हर तरफ प्यार ही प्यार,
पर कुछ दर्द ऐसे मिले जिनमें न हुआ कोई प्रहार
और न हुआ कोई जख्म भीतर या बाहर,
बस उनका हम पर कुछ ऐसा हुआ असर,
कि हम टूट कर गए कई टुकड़ों में बिखर
और जब उठ खड़े हुए होश संभालकर
तब हुई इस बात की हमें खबर
कि उन चोटों की कोई खास न रही उम्र
जो सिर्फ जिश्म पर जख्म बन कर लगे
पर कुछ शब्द बाण और कुछ मौन बाण,
इतने नुकीले निकले कि दर्द अब भी ताज़ा है,
उन चोटों की उम्र मेरी उम्र से ज्यादा है!
©अनुपम मिश्र

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