पूर्णिमा का चांद
पूर्णिमा का चांद चमका है गगन में आज पूरा।
चाँद चमका है तो मन कैसे रहेगा खुश अधूरा।
चाँद पूरा मन भी पूरा, क्यों रहे सपना अधूरा।
लक्ष्य पर फिर से बढ़ा पग, स्वप्न को कर दूं मैं पूरा।
धीरे-धीरे बढ़ते-बढ़ते चाँद पूरा हो गया,
बाँट शीतलता सभी को, खुद की मंजिल पा गया।
किस तरह से प्यार से बढ़ते हैं यह दिखला गया,
राह अंधियारी में चलना, वह मुझे सिखला गया।
अतिसुंदर रचना
सादर धन्यवाद शास्त्री जी
वाह पाण्डेय जी, बहुत खूब, बहुत शानदार
बहुत बहुत धन्यवाद
लक्ष्य पर फिर से बढ़ा पग, स्वपन को में कर दूं पूरा
धीरे धीरे बढ़ते बढ़ते चांद पूरा हो गया…….
बहुत ही ज़बरदस्त और शानदार कविता है सतीश जी । अपने लक्ष्य पर आगे बढ़ने का बहुत सुंदर भाव है।कविता की लयबद्ध शैली ने बहुत प्रभावित किया है ।मुझे तो आपकी सारी रचनाओं में ये वाली सबसे सुंदर लगी है ।आपकी इस कविता की शैली और अभिव्यक्ति के लिए आपकी कलम को प्रणाम, अभिवादन सर ।
आपकी इस शानदार समीक्षा से मन में अतीव प्रसन्नता है। आपके द्वारा की गई समीक्षा प्रेरक और उत्साहवर्धक है। सादर अभिवादन।
बेहतरीन रचना, वाह वाह
पूर्णिमा का चांद बहुत ही सुंदर रचना है।
Wah sirji wah
शानदार पंक्तियां।
बहुत बहुत बहुत काबिलेतारीफ कविता
बहुत अद्भुत रचना चाचा जी 💐💐💐💐💐
आपके अल्फाजों की चमक के सामने सब सादा लगा,
आसमाँ पर चाँद पूरा था… मगर आधा लगा।