बाबूल

बाबूल

छोड चली मैं बाबूल को
अनजान डगर सा लगता है
नयन भरे हैं नीर मेरे
सब अपने पराये लगते हैं ।

अधिकार खत्म कर जा रही
ससुराल का दामन पकडने
इतनी रूहासी हो गयी हूॅ
मन बेचैन सा बहुत लगता हैं ।

खत्म हुयी सब लडकपन
घर बसाने जा रही हूॅ
अपने बगिया को भूलकर
चिडिया बनने जा रही हूॅ ।

माँ बाबा को भूलकर
दूर उनसे मैं जा रही हूॅ
नयनन में ऑसू भरकर
रिवाज मैं निभा रही हूॅ ।।

महेश गुप्ता जौनपुरी
मोबाइल – 9918845864

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