सर्द रातें
ठिठुरती रातों में वो हवाएँ जो सर्द सहता है।
किसे बताएँ मुफ़्लिसी का जो दर्द सहता है।
ज़मीं बिछा आसमां ओढ़ता, पर सर्द रातों में,
तलाशता फटी चादर, जिसपे कर्द रहता है।
पाँव सिकोड़, बचने की कोशिशें लाख की,
पर बच ना सका, हवाएँ जो बेदर्द बहता है।
किसको इनकी परवाह, कौन इनकी सुनता,
देख गुज़र जाते, कौन इन्हें हमदर्द कहता है।
रोने वाला भी कोई नहीं, इनकी मय्यत पर,
खौफनाक शबे-मंज़र, बदन ज़र्द कहता है।
देवेश साखरे ‘देव’
मुफ़्लिसी- गरीबी, कर्द- पैबंद,
शबे-मंज़र- रात का दृश्य, ज़र्द- पीला
Good
Thanks
Welcome sir
Nice
Thanks
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Thanks
Good
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ठिठुरती रातों में वो हवाएँ जो सर्द सहता है।
वाह वाह