स्वप्न या भ्रम – कविता
हर रोज़ पहुँच जाती हूँ
उस श्वेत निर्मल घरोंदे में
न जाने किस जन्म की कहानी
शायद कैद है उन दीवारों में
जहाँ पहुँच कर अतीत के पन्ने
करवटों की तरह बदलते है
शीतल पवन निर्मल सी बहती है
पुकारती हो जैसे मेरी पहचान को
वो बयार कुछ फुसफुसाती है
जैसे अतरंगता मेरे प्रेम की
बयान करके चली जाती हैं
कोई याद मेरे पूर्वजन्म की
सिमटी है उन गलियारों में
क्या कोई रूहानी ताकत
मुझको बार बार बुलाती है
क्या अतीत था मुझसे जुड़ा
या प्रेम था कोई अधूरा सा
भ्रम के मायाजाल में
शायद बसी ये नगरी
जो तड़प मुझमें जगाती है
बरबस खींचती हुई अपनी ओर
नींद के आगोश में ले जाती है
कोई तो है जो मुझे बुलाता है
क्यों बार बार ये सुन्दर महल
मेरे सपनो में आता जाता है
भटकती हूँ ढूंढ़ती हूँ
इंतज़ार करती हूँ रोज़
कोई तो हल निकले
मेरे सवालों के घेरे को तोड़कर
मेरा हमसफ़र कोई हो तो निकले
क्यामेरे अंतर्मन में द्वंद सा है
कुछ तो जानू क्या मेरे वजूद से जुड़ा
वो सपना है या कोई भ्रम मेरा
©अनीता शर्मा
अभिव्यक्ति बस दिल से
भावपूर्ण अभिव्यक्ति
शुक्रिया🙏🏼
Nice
Thank you
सुन्दर रचना।
घरौंदे=घरोंदे, ना जाने किस जन्म की कहानी कैद है उन दीवारों में। शायद का प्रयोग नहीं होना चाहिए था।बदलते हैं होना चाहिए था बहुवचन के कारण।
भावपूर्ण रचना
Ji shukriya maargdarshan ke liye🙏🏼😊
मैं मार्गदर्शन नहीं कर रहा।
बस आपको सूचित कर रहा हूँ।
मेरा इरादा किसी भी कवि में कमी निकालने का नहीं है।
मुझसे खुद गलतियाँ हो जाती हैं
कोमल भाव को समेटे हुए रचना
बेहतरीन प्रस्तुति