Nari Shakti
आज का यह समाज, चक्रव्यू है पुराने गले सढ़े रिवाजों का,
लड़ अभिमन्यु की तरह, अपनी सोच का समाज पे प्रहार कर,
सुन ली सब की आज तक, ना रहा वक्त अब लिहजो का,
खौफ से निकल, खुद से लड़ के खुद पर ऐतबार कर,
क्यूं तुझे है डर घूरती निग़ाहों का और लोगो के अल्फजो का,
सेहने की होती है हद्द कोई, अनसुना कर उन्हें जो कहते है सब्र कर,
किससे फरियाद करेगी, जब डर है अपने घर के बंद दरवाजों का,
अब ना रिश्तों का लिहाज कर, बचना है तुझे तो खुल के वार कर,
क्यूं चुप करवाते है लोग तुझे, क्यूं डर है इनको तेरी परवाजो का,
हार मान के जीना है या लड़ के मरना है, अब तू यह विचार कर,
जब तक खुद के लिए ना लड़ेगी तू, ना आयेगा दौर नए आगाजो का,
लक्ष्मी है घर की तू, पर दुर्गा भी है तू ही है यह स्वीकार कर,
Nice
वाह
,👏👏
Nice
वाह बहुत सुन्दर प्रस्तुति
Beautiful poetry
सभी साथी कवियों का धन्यवाद और आभार मेरी कविता को पड़ने और पसंद करने के लिए
Wow