एक माँ की हालत
मैं अपराधी की माँ बनकर
जिन्दा रहूंगी आखिर कबतक?
किस मनहूस घड़ी में जन्म दिया
जो झेल रही हूँ तुमको अबतक।।
किया कलंकित दूध को मेरे
नजर गड़ा अबलाओं पर ।
खून किया तू मेरे दिल का
मासूमों को बेइज्जत कर।।
परवरदिगार तू मुझे उठा ले
या फिर इस कुकर्मी को।
दे दूँगी मैं खुद हीं फांसी
आखिर इस अधर्मी को।।
विनयचंद रे ऐसी नारी
घर घर में जब होवेगी।
हर बाला, सुरक्षित होगी
फिर कोई माँ नहीं रोवेगी।।
Nice
Nice
Nice
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वाह
सुन्दर रचना