वो डरावना-सा बचपन
सब चाहते हैं,
फिर से वो बचपन पाना,
शरारत से भरी ऑंखें,
और मुस्कुराना,
पर मैं नही चाहती,
वो बचपन पाना,
डर लगता है,
उस बचपन से,
घूरती आँखों,
और उन हैवानों से,
अब है हिम्मत,
हैं डर को जितने का दम,
तब नहीं था, वो मेरे भीतर,
डरती थी, सहमती थी,
बंद कमरे में , सिसकती थी,
चाहती थी, खुलकर हंस सकूँ,
पर न कुछ कह पाना न समझ पाना,
रोना याद कर उन लम्हों को,
और खुद को सजा देना,
मैं नही चाहती वो बचपन पाना,
जहाँ छिनी जाती थी,
पल पल मेरी खुशियां,
जोड़ती थी साहस, की खुद को है,
बचाना,
बचाया खुद को मैंने,
कभी वक़्त ने साथ दिया, कभी दूरियों ने,
कभी अपनों ने, कभी परायो ने,
कोमल मन पर , वो डर का साया,
मैं नही चाहती वो बचपन दोहराना।।।।
मासूम बचपन की संजीदा रचना
बहुत बहुत धन्यवाद
बेहद भावपूर्ण और विचारणीय कविता👍👍
बहुत बहुत धन्यवाद।
भावपूर्ण रचना
Thank you
बहुत ही मार्मिक और भावपूर्ण
Thank you
beautiful poem
Thank you
आपकी कविता नारी की प्रतिमा को जीवंत चित्रण करती है प्रतिमा जी।
धन्यवाद
sunder
Thank you sir
nice poem
Thank you